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जब-जब भी गीतों के / अमरेन्द्र

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जब-जब भी गीतों के मैंने हैं राग चुने
वागीश्वरी, सोरठ, बहार और विहाग चुने।

रंगों की एक परी फूलों पर सोई थी
फूले पलाशों के सपनों में खोई थी
रंग आया अधरों को, गालों, हथेली को
फूलों की घाटी में, जो भी पराग चुने।

हाथों की लाली अब अधरों पर जलती है
दिल में एक चीज कोई रह-रह पिघलती है
अब जाके जाना कि फूलों की घाटी में
अधरों से अधरों के मैंने कण आग चुने।

सुधियों का दूर-दूर फैला यह नीला नभ
चीख रहे कोयल, पपीहा कारण्डव सब
फागुन भी आया था, सावन भी, अगहन भी
मैंने क्यों जान-बूझ जेठ और माघ चुने।