भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब-जब मेरी जिह्वा ड़ोले / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
जब-जब मेरी जिह्वा ड़ोले।
स्वागत जिनका हुआ समर में,
वक्षस्थल पर, सिर पर, कर में,
युग-युग से जो भरे नहीं हैं मन के घावों को खोले।
जब-जब मेरी जिह्वा ड़ोले।
यदि न बन सके उनपर मरहम,
मेरी रसना दे कम से कम
इतना तो रस जिसमें मानव अपने इन घावों को धोले।
जब-जब मेरी जिह्वा ड़ोले।
यदि न सके दे ऐसे गायन,
बहले जिनको गा मानव मन;
शब्द करे ऐसे उच्चारण,
जिनके अंदर से इस जग के शापित मानव का स्वर बोले।
जब-जब मेरी जिह्वा ड़ोले।