भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब-तब / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
जब कलम ने चोट मारी
तब खुली वह खोट सारी
तब लगे तुम वार करने
झूठ से संहार करने
सोचते हो मात दोगे
जुल्म के आघात दोगे
सत्य का सिर काट लोगे
रक्त जीवन चाट लोगे
भूल जाओ यह न होगा
जो हुआ है वह न होगा
लेखनी से वार होगा
वार से ही प्यार होगा
कल नगर गर्जन करेगा
क्रोध विष वर्षन करेगा
सत्य से परदा फटेगा
झूठ का तब सिर कटेगा
रचनाकाल: २७-११-१९५२