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जब अपनी ज़िन्दगी तुम हो फिर उस का मुद्दआ तुम हो / रतन पंडोरवी

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जब अपनी ज़िन्दगी तुम हो फिर उस का मुद्दआ तुम हो
तो इस में हर्ज ही क्या है अगर कह दें ख़ुदा तुम हो

तुम्हारे दम से तूफानों में बेड़े पर होते हैं
तअज़्ज़ुब है ख़ुदा होते हुए भी ना-ख़ुदा तुम हो

जनाबे-ख़िज्र देखी है तुम्हारी रहनुमाई भी
वो मंज़िल पा चुका जिस राह-रौ के रहनुमा तुम हो

न होता आशियाँ तो बिजलियाँ पैदा ही क्यों होती
अगर तालिब-नवाज़ी तुम नहीं करते तो तुम क्या हो

तुम्हारे क़हर में भी मेहर का अंदाज़ मिलता है
अगर हो दर्द हर दिल का तो हर दुख की दवा तुम हो

बयाने-मुद्दआ मुझ बे-ज़बां से हो नहीं सकता
ज़बां तुम हो दहन तुम हो बयाने-मुद्दआ तुम हो

तुम्हीं को देखता हूँ ज़ाहिर-ओ-बातिन में ऐ हमदम
ख़ुदा तुम को नहीं कहता मगर शाने-ख़ुदा तुम हो

तुम्हारी खुश नवाई ऐ 'रतन' गुमनाम सी क्यों है
बहुत शीरीं सुख़न तुम हो बहुत शीरीं नवा तुम हो।