भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब अपने नग़मे न अपनी ज़बाँ तक आए / जगन्नाथ आज़ाद
Kavita Kosh से
जब अपने नग़मे न अपनी ज़बाँ तक आए
तेरे हुज़ूर हम आ कर बहुत ही पछताए
ख़याल बन न सका नग़मा गरचे हम ने उसे
हज़ार तरह के मलबूस-ए-लफ़्ज़ पहनाए
ये हुस्न-ओ-रंग का तूफ़ाँ है मआज़-अल्लाह
निगाह जम न सके और थक के रह गए
जो दर्द उठे भी तो इज़हार उस का हो क्यूँकर
हुज़ूर-ए-हुस्न अगर आवाज़ बैठ ही जाए
हटे नज़र से न फ़ुर्क़त की धूप में 'आज़ाद'
किसी की सुम्बुल-ए-शब रंग के घने साए