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जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ / उमैर मंज़र
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जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
सारा आलम उस की नज़र में ख़ाक हुआ
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ
तिरी गली से शायद हो कर आ गया है
बाद-ए-सबा का झोंका जो सफ़्फ़ाक हुआ
ज़ब्त-ए-मोहब्बत की पाबंद ख़त्म हुई
शौक़-ए-बदन का सारा क़िस्सा पाक हुआ
उस बस्ती से अपना रिष्ता-ए-जाँ ‘मंज़र’
आते जाते मौसम की पोशाक हुआ