भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब इक गरीब शख्स का छप्पर उजड़ गया / ऋषिपाल धीमान ऋषि
Kavita Kosh से
जब इक गरीब शख्स का छप्पर उजड़ गया
ज़ालिम हवा का ज़ोर भी मद्धम सा पड़ गया।
गुलशन हमारे प्यार का ऐसे उजड़ गया
इंसानियत का ओढे ज्यों जड़ से उखड़ गया।
मरते हुए वो आदमी चिल्लाते रह गये
हर शख्स उनको देख के आगे को बढ़ गया।
देखा जो आदमी का सुलूक आदमी के साथ
मैं क्या बताऊं, शर्म से धरती में गड़ गया।
दिन रात 'ऋषि' ये सोचता रहता ठन आजकल
मैं सत्य मार्ग पर था, मगर क्यों पिछड़ गया।