भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब उड़ी नोच डाली गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
जब उड़ी नोच डाली गई।
ओढ़नी नोच डाली गई।
एक भौंरे को हाँ कह दिया,
पंखुड़ी नोच डाली गई।
रीझ उठी नाचते मोर पे,
मोरनी नोच डाली गई।
खूब उड़ी आसमाँ में पतंग,
जब कटी नोच डाली गई।
देव मानव के चिर द्वंद्व में,
उर्वशी नोच डाली गई।