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जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना / ज़िया जालंधरी
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जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना
चुप लगी ऐसी कि ख़ुद हो गए ज़िंदाँ अपना
ना-रसाई का बयाबाँ है कि इरफ़ाँ अपना
इस जगह अहरमन अपना है न यज़्दाँ अपना
दम की मोहलत में है तस्ख़ीर-ए-मह-ओ-मेहर की धुन
साँस इक सिलसिला-ए-ख़्वाब-ए-दरख़्शाँ अपना
तलब उस की है जो सरहद-ए-इम्काँ में नहीं
मेरी हर राह में हाइल है बयाबाँ अपना
कैसी दूरी उसी शोले की है ज़ौ मेरा जमाल
जिस से ताबिदा रहा दीदा-ए-गिर्यां अपना
अर्मुंगाँ हैं तिरी चाहत के शगुफ़्ता लम्हे
बे-ख़ुदी अपनी शब अपनी मह-ए-ताबाँ अपना
इस तरह अक्स पड़ा तेरे शफ़क़ होंटों का
सुब्ह-ए-गुलज़ार हुआ सीना-ए-वीराँ अपना
ऐसी घड़ियाँ कई मुझ ऐसों पे आई होंगी
वक़्त ने जिन से सजा रक्खा है ऐवाँ अपना