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जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली / खातिर ग़ज़नवी

जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
ढलते ढलते रात ढली

उन आंखों ने लूट के भी
अपने ऊपर बात न ली

शम्अ का अन्जाम न पूछ
परवानों के साथ जली

अब भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली

'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल
इसमें जीत से मात भली