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जब कभी प्यार ज़माने से खार खाता है / विनय कुमार
Kavita Kosh से
जब कभी प्यार ज़माने से खार खाता है।
उसके चेहरे पे नया सा निखार आता है।
खर्च मैं हो गया दिल की दुकान पर कब का
अब, तो जो भी मंगाइये उधार आता है।
क्या कशिश है तेरे मलवे में कि जलवे झूठे
जो भी आता है यहाँ बार-बार आता है।
वह समझता है शराफ़त को ऊन का कुर्ता
जब कड़ी धूप हो उसको उतार आता है।
मौसमे इश्क में तन्हाइयां नहीं होतीं
तेरे जाते ही तेरा इंतज़ार आता है।
आँधियाँ नींद की दीवार से नहीं रुकतीं
खिड़कियाँ ख़्वाब की खुलती हैं ग़ुबार आता है।