भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब कभी मिला करो / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
Kavita Kosh से
जब कभी मिला करो
कुछ कहा सुना करो
हुस्न की शिकायतें
इश्क़ से किया करो
बाँट कर किसी के ग़म
राहतें दिया करो
कह के सोचना नहीं
सोचकर कहा करो
मुफ़्त कुछ न लो कभी
क़ीमतें दिया करो
इक फ़क़ीर कह गया
बंदगी किया करो
मंज़िलों की चाह में
रात-दिन चला करो
नेमतें हुईं अता
शुक्र तो अदा करो
वो नहीं 'रक़ीब' है
प्यार से मिला करो