भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब कभी हम नज़र उठाते हैं / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कभी हम नज़र उठाते हैं
तुम को अपने करीब पाते हैं

तुम हमारे हो जानते हैं मगर
हिज्र के ख्वाब भी डराते हैं

आईना दिल का कब हुआ धुंधला
हम यहीं सच को देख पाते हैं

राम तो हैं सभी जगह लेकिन
मंदिरों में ही सिर झुकाते हैं

हमको प्यारा है ये वतन अपना
गीत इस के ही गुनगुनाते हैं

हो गये झूठ सारे अफ़साने
लोग क्यूँकर उन्हें सुनाते हैं

दुश्मनी झोंपड़ी नहीं करती
कौन हैं आग जो लगाते हैं

आँख खुलते ही टूट जायें जो
ख़्वाब आँखों मे क्यों सजाते हैं

हो न चाहत जिन्हें निभाने की
किसलिये वो अहद उठाते हैं