जब कुछ लिखने नया चले तो कितने क्लिष्ट हुए / गीत गुंजन / रंजना वर्मा
जब कुछ लिखने नया चले तो कितना क्लिष्ट हुए॥
नैनों से पानी झरा नहीं
मन का अभाव कुछ भरा नहीं।
धरती की दरकी छाती पर
कोई जलधर अवतरा नहीं।
यह धूम हृदय की रक्त हीन कर से संश्लिष्ट हुए।
जब कुछ लिखने नया चले तो कितना क्लिष्ट हुए॥
सच को सच कहने अगर चले
तिल तिल दीपक की भाँति जले।
समझौता किया ना सुविधा से
पीड़ा अभाव के साथ पले।
समझौतावादी दुनिया में हम बहुत अशिष्ट हुए।
जब कुछ लिखने नया चले तब कितने क्लिष्ट हुए॥
सौदा न कर सके लाखों का
हम तो मोती हैं आँखों का।
निर्मूल्य मूल्यमय का अंतर
बक औ मराल की पाँखों का।
औरों ने गिरा दिया दृग से हम किंतु विशिष्ट हुए।
जब कुछ लिखने नया चले तो कितना क्लिष्ट हुए॥
है समय सिंधु कितना गहरा
कब भूतों का जीवन ठहरा।
इसकी लहरों के साथ साथ
साँसो का हर कंपन लहरा।
साहित्य - ग्रंथ में हम केवल अनदेखा पृष्ठ हुए।
जब कुछ लिखने नया चले हम कितने क्लिष्ट हुए॥