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जब के पहलू में हमारे / ज़फ़र

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जब के पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो
गिर्ये से शाम ओ सहर क्यूँ के हमें काम न हो.

ले गया दिल का जो आराम हमारे या रब
उस दिल-आराम को मुतलक़ कभी आराम न हो.

जिस को समझे लब-ए-पाँ-ख़ुर्दा वो मालिदा-मिसी
मर्दुमाँ देखियो फूली वो कहीं शाम न हो.

आज तशरीफ़ गुलिस्ताँ में वो मै-कश लाया
कफ़-ए-नर्गिस पे धरा क्यूँके भला जाम न हो.

कर मुझे क़त्ल वहाँ अब के न हो कोई जहाँ
ता मेरी जाँ तू कहीं ख़ल्क़ में बद-नाम न हो.

देख कर खोलियो तू काकुल-ए-पेचाँ की गिरह
के मेरा ताइर-ए-दिल उस के तह-ए-दाम न हो.

बिन तेरे ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम ये दिल को है ख़तर
तेरे आशिक़ का तमाम आह कहीं काम न हो.

आज हर एक जो यारो नज़र आता है निढाल
अपनी अबरू की वो खींचे हुए समसाम न हो.

है मेरे शोख़ की बालीदा वो काफ़िर आँखें
जिस के हम चश्म ज़रा नर्गिस-ए-बादाम न हो.

सुब्ह होती ही नहीं और नहीं कटती रात
रुख़ पे खोले वो कहीं जुल्फ-ए-सियह-फ़ाम न हो.

ऐ ‘ज़फ़र’ चर्ख़ पे ख़ुर्शीद जो यूँ काँपे है
जलवा-गर आज कहीं यार लब-ए-बाम न हो.