जब गली-गली डोली आँधी / विमल राजस्थानी
जब अवसानों के पनघट पर
कितनों के जीवन-घट फूटे
दुनिया की भूल-भुलैया में
जब कितनों के साथी छूटे.
कितनी सतियों की माँग धुली
कितनी ललनाएँ ज्वाल बनीं
यौवन की चिता सजी क्षण में
जीवन के शत बंधन टूटे.
जब देश-दहन में ‘स्वाहा’ कर कितनों ने शीश चढ़ाए हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
संघर्षों की झंझा में जब
जीवन-तरुओं के पात झरे
जब गली-गली डोली आँधी
उजड़े कानन जब हरे-भरे.
अब आकुल करुणा-क्रन्दन से
भर गया हमारा घर-आँगन
घर-बार गिरे, काँपी ज़मीन,
प्रासाद हिले, काँपे-सिहरे.
जब जीवन के कंटक-पथ पर तरुणों ने पाँव बढाए हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
जीवन की फूली फसलों को
जब काट गया कोई ज़ालिम
दुख की खाई को उत्पीड़न—
से पाट गया कोई ज़ालिम.
जब हमने अपनी आँखें भर
पानी माँगा, दाने मांगे
तब हाय, हमारे आँसू को—
भी चाट गया कोई ज़ालिम.
जब अपनी दुनिया में जीने के लिए लाल चिल्लाये हैं
तब कहीं क्रांति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.
हम-से दरियादिल कौन? जो की
जालिम को ही समझाते हों
उसके पापों को छोड़ सदा
उस मानव को अपनाते हों.
उससे कहते हों, लो अपना
दे दो नं हमारी थाती तुम
हम-से बेबस कितने हैं जो
आँसू से आग बुझाते हो.
जब अत्याचारों के मुँह पर जीवन-यौवन मुस्काते हैं
तब कहीं क्रांन्ति की ज्वाला के अंगार चमकने पाये हैं.