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जब छोटे से जरा बड़ा हुआ / केदारनाथ अग्रवाल

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जब
छोटे से बड़ा हुआ
घुटने मोड़कर चलने के बजाए
खड़े होकर
गाँव घर में चलने लगा
अपने पैरों पर उछलने लगा
तब
मैंने सूरज से दोस्ती की
धूप में उसके
अपनों और दूसरों को पहचानने लगा,
पेड़ पौधों से घनिष्टता की
फूलों की सुगंध से महकने
और फलों के स्वाद से रसियाने लगा
और हवा की हिरासत में
अपने आप को
खुशकिस्मत समझने लगा
और गाँव घर को
खेलकूद का मैदान समझने लगा
जब
पट्टी पुजाकर गाँव के मदरसे में
पढ़ने लगा
ककहरा के माध्यम से
शब्दों को तितलियों की तरह पकड़ने लगा
सौ तक गिनती गिनकर
विद्वान होने की कल्पना करने लगा
और पहाड़े के पहाड़ पर
हाँफ हाँफ कर चढ़ने लगा
और मुदर्रिस को
जेलर की तरह
आँख बचाकर देखने लगा
पोथियों पर स्याही गिराकर
शब्दों को मिटाने लगा