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जब जब अकेली होती है स्त्री / अनुभूति गुप्ता
Kavita Kosh से
स्त्री
जब-जब
घर के आँगन में
अकेली होती है
एकान्त से
बातें करती है
दिल में दर्द
भरती है
अश्कों को धुलकर
आईने की ओर
देखती है
एकटक निहारती है
अपने चेहरे पर पड़ी
अनगिनत रेखाओं को
मन्द-मन्द मुस्काते हुए
कहती है
कि...
कम से कम कोई तो है
साथ मेरे
मन को बाँधने को
मैं और मेरा प्रतिबिम्ब।