भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब ज़ुल्फ़ तेरी मुझ पे बिखरती नज़र आये / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब ज़ुल्फ़ तेरी मुझ पे बिखरती नज़र आये
बिगड़ी हुर्इ तक़दीर संवरती नज़र आये

हौले से सबा1 जब भी गुज़रती नज़र आये
तस्वीर तेरी दिल में उतरती नज़र आये

ये मंज़िले-उल्फ़त2 तो नहीं अहदे-गुज़श्ता3
इक याद थी दिल में जो बिसरती नज़र आये

होटों की हंसी ताज़गी-ए-ज़ख़्म है यारों
दिल में ये छुरी बन के उतरती नज़र आये

मलबूसे-मसीहा4 में छुपे बैठे हैं क़ातिल
अब ज़ीस्त5 न क्यों इन से भी डरती नज़र आये

बख्शी है 'कंवल’ मैंने ग़मे-ज़ीस्त को शोहरत
मै हूं कि हंसी लब पे संवरती नज़र आये


1.प्रभातसमीर 2. अनुरागकागंतव्य 3. गुजराहुआकाल 4. मसीहाकेभेषमें 5. जीवन।