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जब झर जाती हैं कलियाँ / अनुराधा महापात्र
Kavita Kosh से
क्यों और क्यों और क्यों की मुक्तिहीनता से
वे, वे चल दिए हैं, एकाकी
माथे पर पथरीले थप्पड़ और जनश्रुतियों की
कीलें लेकर!
वह देखो बही जा रही है प्रज्ञामग्न ह्वेल
दो हज़ार वर्ष के तिमिरसागर के किनारे पर।
बहुत-बहुत दूर प्यास की सांत्वना बनकर
कालपुरुष के डैने नीचे उतर आते हैं
मर्म के आकाश को धोकर।
हम भी जीवित हैं — क्या हम जीवित हैं!
अंधे-जैसा है यह मरना-बचना।
धुँधलके में शार्कों के खेल
बिना किसी सबूत के मौजूद हैं
किसी अतल गहराई के गुप्त प्रवाह में।
ओह ये झरे हुए पत्ते
ओह असमय की ये कलियाँ —
शोक से थक गईं बौद्ध भिक्षुणियों के गीत की तरह
यह कातर चम्पा की सुरभि;
सुबह से लेकर शाम तक
रक्तवर्णी तैलरंग की झलक।
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी