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जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेसलरी की बोतलें सजती हैं / निर्मला पुतुल

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यह कहते हुए
शर्मिन्दा महसूस कर रही हूँ
कि बाज़ार में घूमते
जब प्यास लगती है
तो पानी से ज़्यादा
पेप्सी और स्प्राइट की तलब होती है
पता नहीं कब
हमारी प्यास में घुस गया यह सब ।

सभा सम्मेलनों में आते-जाते
कब बोतलबंद पानी ने
जगह बना ली हमारे भीतर
कि अब हम अपनी यात्राओं में भी
बेसलरी की बोतल साथ रखते हैं ।

वे सारे लोग
जो हम में देशज संस्कृति तलाशते हैं
झारखण्डी अस्मिता पर बुलवाते हैं
और जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दे पर
हमारी राय चाहते हैं
वही लोग बेसलरी की बोतलें बढ़ाते हैं
बोलते-बोलते जब प्यास लगती है सभा में ।

अब जबकि गुलदस्ते की जगह
सम्मेलनों में हमारे टेबुलों पर बेसलरी-बोतलें सजती हैं
न चाहते हुए भी पानी पी-पीकर बोलना पड़ता है
अपने इलाके के सूखे स्रोतों पर ।

ऐसे में जब बाज़ार से गुज़रते
एक गिलास पानी मिलना कठिन हो गया है
और पेप्सी आसान
नहीं चाहकर हम आसान रास्ते अपना लेते हैं दोस्त ! आिर वे लोग
जो हमारे भीतर
जल-जंगल-ज़मीन बचाने का जज़्बा देखते हैं
झारखण्डी अस्मिता और देशज संस्कृति तलाशते हैं
उन्हीं की संगति ने हमारी भाषा बिगाड़ दी
और प्यास बुझाने के लिए
पेप्सी और स्प्राइट का चस्का लगा दिया ।