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जब तक तुम सुख सीमा बने रहे / तारा सिंह

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जब तक दो देह, एक प्राण बनकर, तुम
मेरे जीवन सुख की अनंतहीन सीमा बने रहे
तब तक प्रतिकूल पवन में रहकर भी मेरा जीवन
तरणि गहरे जल से वापस किणारे लगता रहे
दुख भी आये, अपनी वाणी में अनुनय
आँखों में विनय की छाया की लिए मिले

मेरा भाग्य मेरे संग दुर्लभ कुसुमों की पँखुड़ियाँ लिए
मेरी छाया बन अंधेरे में भी जीवित साकार खड़े रहे
अकथ अलौकिक मेरे भावों का विचार बनकर
विश्व जीवन की झंकार हौले-हौले मुझे सुनाते रहे
समीर यानों पर उड़ते मेघों का दल,जीवन बन मेरा पथ
आलोकित करने, मृदु आभा का स्वर्णिम जाल बुनते रहे
मेरे भावों के धुँधले चित्र में इन्द्रधनुषी रंग भरकर
पुलक भरा रहस्यमय आकार देते रहे

जब फ़ैल गई प्रेम की बेलि,टहनी-डालें लगीं महकने
तब आने का छल कर,तुम प्रवासी क्यों हो गये
मैं घन-तुमुल इस धरती पर ,नियति-वंचिता
आश्रय-रहिता, पदमर्दिता ,दलिता-सी जीती हूँ
जग के निष्ठुराघातों को पतिता-सी सहती हूँ
हार बनी हूँ प्रिय कभी, तुम्हारे गले की, सोच
हर आसव को अमृत समझ कर पीती हूँ

आशा तरु के नीचे, झीनी आँचल फ़ैलाकर
सूखे पत्तों को अधरों से सिंचित कर,सुला चुकी
अपनी सभी इच्छाओं की कहानी, उसे सुनाती हूँ
काश तुम आकर अपनी आँखोंसे देख लेते मुझे
मैं पल-पल अश्रुस्नात कर पहले से भी
अधिक कृश, शरद शुभ्र सी सुंदर लगती हूँ