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जब तक प्राणों की वीणा में झंकार शेष / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

जब तक प्राणों की वीणा में झंकार शेष
तब तक मैं अपने गीत सुनाता जाऊँगा।

तुम चाहे तुझ पर टूटो बन कर वज्र किन्तु
मैं धरती बन कर वार सहन करने वाला;
नभ झुका हुआ हो पर्वत पर, पर्वत मुझ पर,
मैं पृथ्वी बन कर भार वहन करने वाला।

अन्यायों के सम्मुख यह सीस झुका न कभी
मत समझो पल-भर भी कि झुका दूँगा अब मैं;
ऐसा अवसर आने के पहले ही निश्चय
अपनी साँसों का मूल्य चुका दूँगा तब मैं।

जब तक प्राणों का दीप टिमटिमाता मेरा
तब तक मैं जगमग ज्योति जलाता जाऊँगा॥1॥

मैं खिलूँ फूल बन कर जीवन के उपवन में
बरसों तुषार बन कर मुझको परवाह नहीं;
मैं चलूँ नाव लेकर जीवन की सरिता में
आओ बन कर तूफान मुझे परवाह नहीं;

मैंने संघर्षों के अतिरिक्त न देखा कुछ
इसलिये मुझे संघर्षों से ही प्यार हुआ;
जीवित हूँ आज इन्हीं के बल पर मैं हँस कर
इसलिये सभी का मैं, मेरा संसार हुआ।

जीवन-सागर के मंथन में जो मिला मुझे
भावों का वह नवनीत लुटाता जाऊँगा॥2॥

मैंने दुनिया को प्यार किया है, पर इसका
यह अर्थ नहीं दुनिया मुझको भी प्यार करे;
मैंने पहिनाया है फूलों का हार जिसे
परवाह न यदि वह शूलों का शृंगार करे।

मुझको न निराशा हुई कभी भी जीवन में
इसलिये कि फल की आशा ले मैं चला नहीं;
तन के दीपक में मन की बाती डाल स्वयं
अपने अन्तर के स्नेह बिना मैं जला नहीं।

जब तक प्राणों के घन सावन बरसायेंगे
जलती धरती की प्यास बुझाता जाऊँगा॥3॥