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जब तक मेरी तुम्हें ज़रूरत / रामगोपाल 'रुद्र'
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जब तक मेरी तुम्हें ज़रूरत होगी
तब तक मैं ही तुम हो जाऊँगा!
गुल खिलनेवाले मौसम में तुम आए थे,
मन की मधुर व्यथा बन काँटों में छाए थे;
पिऊँ-पिऊँ जब तक मैं सौरभ की प्याली से,
तुम्हीं तोड़ भी गए, जिसे तुम भर लाए थे!
अब, जब तक फिर जाम भरोगे, तब तक
मैं ही मंदिर कुसुम हो जाऊँगा!
इसी कुंज में भरम रहा हूँ मैं भरमाया,
जबसे उढ़ा-उतार गए तुम दृग की माया!
टूटे स्वर टूटे काँटों में अँटक रहे हैं
पता तुम्हें ही नहीं, यहाँ किसने क्या गाया!
पता लगाने जब तक तुम आओगे,
तब तक मैं ही गुम हो जाऊँगा!