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जब तक सपने, तब तक यौवन / सुमित्रा कुमारी सिन्हा
Kavita Kosh से
जब तक सपने, तब तक यौवन !
तन की निष्प्राण भुजाओं में यदि मन का कोमल गात झुके,
तब सपनों का श्रृंगार लुटे, आशा का हास-विलास रुके,
बुझ जाएँ अभिलाषा-दीपक, मन में घिर आवें सघन गगन !
तब असमय वृद्ध लगे तन-मन !
प्रतिबिम्ब वयस है मन का ही, तन का परिवर्तन मन से है,
मानव-जीवन-व्यापार सफल होता मन, ही के धन से है
श्वासों का यौवन सार्थक है जब तक मन में जीवित स्पन्दन !
तब गति का नाम पड़े जीवन !
जीवन लय हो सन्धानों में, अवरोध अकिंचन बन जाएँ,
विश्वास-प्यार का बन्धन हो तो युग युग क्षण बन रह जाएँ,
उड़ते निमिषों के पंखों पर सपनों की छवि का हो अंकन !
मन पंछी हो तो मुक्त गगन !