भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब तक साँस चलती जीना पड़ेगा ही / सुधेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तक साँस चलती जीना पड़ेगा ही
जीने के लिए श्रम भी करना पड़ेगा ही ।

अमरित खोजते फिर तो रहे हैं हम
जीवन ज़हर भी पर पीना पड़ेगा ही ।

जीने के लिए सामान तो हैं बहुत से
इक दिन मगर सब को मरना पड़ेगा ही ।

बैसाखी लिए क्या पर्वत चढ़ोगे तुम
अपने पाँव पर तो चलना पड़ेगा ही ।

मर-मर जी रहे हैं जग में हज़ारों ही
जीने के लिए पर मरना पड़ेगा ही ।