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जब तिलस्म खुलता है / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
उससे न पूछो
क्यों लिखा
कैसे लिखा
वह तो स्वयं ही विस्मित है
यह सब क्या तिलस्म है
खुल जाता बिन खोले
या बंद हो जाता/पत्थर में
उसने कई-कई बार
यत्न किया इसको ढकने
ठान लिया हठ
लिखना ही है कुछ
लम्बी लम्बी साँसें लीं
चाय बनवाई
सबको डाँटा, ”शोर नहीं“
किन्तु पंक्ति तो क्या
शब्द नहीं एक हाथ आया
जिसको कविता कह सकती
अब वह तुमको कैसे बतलाए
उसने क्या-क्या देखा है,
जब तिलस्म खुलता है,
कह सकती तो
कह देती!