जब तुमने ईश्वर को खारिज़ कर दिया था / विपिन चौधरी
(कवि अंशु मालवीय के लिये)
एक साथ सर जोड़े बैठ
सैंकड़ों कोशिकाएं
अपने अपने कामों का बंटवारा करने में जुटी थी
जीवन,
पहली बार हस्ताक्षर करना सीख इतराने लगा था
सप्त ऋषियों ने आकाश पर धूनी रमा कर एक बड़ी चिलम भरी
और एक ठिकाने के तौर पर
वनस्पतियों, निशाचरों ने धरा को चुन लिया
यह सब देख जल-भुन कर ईश्वर ने अपने आप को बराबर- बराबर बांटा और
खलनायको जैसे सख्त जूतों समेट
मनुष्यों की छाती पर आ चढ़ा
एक समय को तो ईश्वर इतना शक्तिशाली हो गया
कि लोग उसके काट कर अलग किये गये नाखूनों से भी डरने लगे
लोग ईश्वर को अपने दरवाजे पर चित्रित करने लगे
भीति चित्रों में ईश्वर
सड़क के कोनो पर ईश्वर
रसोईघर घर में ईश्वर
नवविवाहित जोड़ो के बिल्कुल करीब बैठा ईश्वर
राम ईश्वर
काम ईश्वर
धाम ईश्वर
साम दाम दंड ईश्वर
यहाँ तक ही शौचालयों तक में भी एक अदद ईश्वर
इसी ईश्वरमय समय के मुहाने पर उकडू बैठ
एक सक्षम कवि ने अपने
दरवाजे पर टाँक दिए
फूलों और सुंदर वनस्पतियों के रंग- बिरंगे, सुंदर महीन बेल- बूँटे
और ईश्वर के प्रतीक चिन्हों को कर दिया
सही ही खारिज
कवि की गली का रास्ता भूलने के अलावा अब
ईश्वर के पास कोई दूसरा कोई जतन नहीं बचा है
(यही तो वह कवि बरसों से चाहता है)