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जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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मेरा खेल साथ तुम्हारे जब होता था
तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था.
तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर
जीवन अशांत बहता जाता था
तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई
ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्हारी
हँसकर साथ तुम्हारे रही दौड़ती फिरती
उस दिन कितने ही वन-वनांत.
ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान
उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था.
केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण,
सदा नाचता हृदय अशांत.
हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि--
स्तब्ध आकाश, नीरव शशि-रवि,
तुम्हारे चरणों में होकर नत-नयन
एकांत खड़ा है भुवन.