भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब तुम अपनौ मौ खोलत हौ / महेश कटारे सुगम
Kavita Kosh से
जब तुम अपनौ मौ खोलत हौ
आपस में नफरत घोरत हौ
जहर उगलवे दूध प्या रये
सांपन खौं पालत पोसत हौ
पैलें आग लगात घरन में
फिर पानी लैवे दौरत<ref>दौड़ना</ref> हौ
झूठी मूठी बस बातन सें
बादर के तारे टोरत हौ
अपनी शकल सुधारत नईंयाँ
तुम तौ ऐना<ref>आईना</ref> खौं कोसत हौ
बादर देख पियत पानी के
सुगम पोतलन<ref>ठण्डे पानी का मिटटी का बना बर्तन</ref> खौं फोरत हौ
{{KKMeaning}