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जब तुम नहीं आई / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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मुझे लगता था
तुम आओगी
मगर तुम नहीं आई
अब तो बसन्त भी चला गया
बच गई है केवल
उड़ती हुई धूल
गर्द भरी धूप

अब भी तो भोर होता है
अब भी शाम होती है
मगर
वैसा अब कुछ भी नहीं होता

एक दिन
वसन्त के जाने के बाद
मेरा मन अटक गया था

भोर की
पहली किरण पर
हाय वह कैसी किरण थी ?
उसकी हालत कैसी हो गई थी
ठीक वैसी ही
जैसे लुटती फसल को
बचाने में
बुरी तरह पिटे किसान की हो जाती है

मैंने अपनी आँखें
बन्द कर ली थी
और जब आँखें खुली
तो तभी से यह क्या हो गया है
सब मेरे विरुद्ध हो गये हैं
अलग अलग ढंग से
अंगुलियाँ दिखाते हुए ।

नीले आसमान में
आग लग गई हैं।
मेरे लिए
सारी प्रकृति डायन बन गई हैं
तंत्र-मंत्र करने वाला
कोई नहीं है।
तुम्हें आना ही पड़ेगा
वसन्त चला गया तो क्या ।