जब दधि-मथनी टेकि अरै / सूरदास
जब दधि-मथनी टेकि अरै ।
आरि करत मटुकी गहि मोहन, वासुकि संभु डरै ॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत, फिरि जनि मथन करै ।
प्रलय होइ जनि गहौं मथानी, प्रभु मरजाद टरै ॥
सुर अरु असुर ठाढ़ै सब चितवत, नैननि नीर ढरै ।
सूरदास मन मुग्ध जसोदा, मुख दधि-बिंदु परै ॥
जब श्यामसुन्दर दही मथने की मथानी पकड़कर अड़ गये, उस समय वे तो मटका पकड़कर मचल रहे थे; किंतु वासुकि नाग तथा शंकर जी डरने लगे, मन्दराचल भयभीत हो गया, समुद्र काँपने लगा कि कहीं फिर ये समुद्र-मन्थन न करने लगें । (वे मन-ही-मन प्रार्थना करने लगे-)`प्रभो! मथानी मत पकड़ो, कहीं प्रलय न हो जाय, अन्यथा सृष्टि की मर्यादा नष्ट हो जायगी ।' सभी देवता और दैत्य खड़े-खड़े देख रहे हैं, उसके नेत्रों में आँसू ढुलक रहा है (कि फिर समुद्र मथना पड़ेगा) । सूरदास जी कहते हैं- (यह सब तो देवलोक में हो रहा है पर गोकुल में दही-मन्थन के कारण) श्याम के मुख पर दही के छींटे पड़ते हैं, (यह छटा देखकर) मैया यशोदा का मन मुग्ध हो रहा है ।