भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब दर पे तुम्हारे ही अधमों का ठिकाना है / बिन्दु जी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब दर पे तुम्हारे ही अधमों का ठिकाना है।
फिर मेरी किस्मत में ही क्यों रंज उठाना है॥
तारोगे तो तर लेंगे, छोड़ोगे तो बैठे हैं।
दरबार से अब हरगिज उठकर नहीं जाना है॥
मेरी तो कोई करनी निभने की नहीं भगवन।
जैसे भी निभाओ अब तुमको ही निभाना है॥
फरियाद को सुनने में है कौन सिवा तुम्हारे।
गर तुम न सुनो मेरी फिर किसको सुनना है॥
दृग ‘बिन्दु’ की शक्लों में है ख्वाहिश इस दिल की।
जरिया तो है आँखों की आँसू का बहाना है॥