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जब दे दुलरुआ बाबू नगर सिरीठ भेल / अंगिका लोकगीत

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

जब दे दुलरुआ बाबू नगर सिरीठ<ref>श्रेष्ठ; प्रविष्ट; प्रवेश किया</ref> भेल, बाजन बाजे पँचमेर हे।
बाजन बाजै लेाग हुलसाय, नगर उठै झँझकार हे॥1॥
ऊँची रे महल चढ़ि सरहोजी हेरै, कते दले आबै बरियात हे।
हाथी के छाने<ref>चलने की गति से</ref> घोड़ा चलि आबै, बगुला के छाने बरियात हे॥2॥
सरहोजी डरिया<ref>डगर-डगर घूमने वाली</ref> नठलि<ref>छँटी हुई</ref> छिनरिया, दूसै<ref>शिकायत करती है; दोष लगाती है</ref> कटुक<ref>मसाला; विभिन्न सामग्री</ref> हमार हे।
घोड़ा के टापे हमें नगर खुनायब, सरहोजी लेब दहेज हे॥3॥
सेहो सुनि सरहोजी मनहिं बेदिल भेल, चलि भेल ठाकुर पास हे।
केहन जमैया माय हे तोरो घरऽ आनल, हमहिं माँगै जैतुक<ref>उपहार; दहेज</ref> दान हे॥4॥
डाला तोरब फूल छिरियायब, मौरी करब थकचून<ref>चकनाचूर</ref> हे।
बारी गौरी हम घरऽ के नुकायब, निकठल<ref>खाली; निराश होकर</ref> जैता बरियात हे॥5॥
डाला जोरब पुरहर<ref>द्वारकलश; कलश के ऊपर रखा जाने वाला पूर्णपात्र</ref> बैठायब, मौरी करब समतूल हे।
बारी गौरी हमें चंडोला चढ़ाएब, हुलसैत जैते बरियात हे॥6॥
माय अलारी पूछै बाप दुलारी पूछै, भौजो पूछै चुचुकारि हे।
कैसन बाबू हो सारी सरहोजिया, कैसन सुहबी<ref>दुलहिन; सौभाग्यशाली</ref> तोहार हे॥7॥
सासु के देखलै अरिछैते<ref>‘परिछैते’ का अनुरणानात्मक प्रयोग</ref> परिछैते, सरहोजी रचल धमार हे।
सोहबी के देखलौं ओहि रे कोहबर घरऽ, रँग बिरँग रेसम चीर हे॥8॥

शब्दार्थ
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