भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब नहीं कोई वास्ता मुझसे / रविकांत अनमोल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब नहीं कोई वास्ता मुझसे
फिर हो किस बात पर ख़फ़ा मुझसे

गर्मजोशी न थी तपाक<ref>प्रेम, प्यार, आवभगत</ref> न था
सिर्फ़ रस्मन<ref>रस्मी तौर पर, ऐसे ही</ref> ही वो मिला मुझसे

तुम जो मेरे हो मैं तुम्हारा हूँ
फिर ये कैसी सनम हया मुझसे

अजनबी था मिला क़रीब आया
और फिर वो बिछुड़ गया मुझसे

फ़ोन करती है माँ तो कहती है
आ के इक बार मिल तो जा मुझसे

मैं जो तुझको ख़ुदा से कम समझूँ
रूठ जाए मिरा ख़ुदा मुझसे

तुम मुझे एक बस मुझे सोचो
ख़ुश रहो या रहो ख़फ़ा मुझसे

धीमे-धीमे सुरों में वक़्ते-शाम
कह रही है ये क्या हवा मुझसे

सिर्फ़ ख़ुद को निसार<ref>न्यौछावर</ref> करना था
और ये भी नहीं हुआ मुझसे

मेरे दुश्मन रहे मिरे क़ायल
दोस्तों को रहा गिला मुझसे

क्या सबब है मिरी उदासी का
काश कोई तो पूछता मुझसे

दोस्त मेरे तिरी वफ़ाओं का
हक़ नहीं हो सका अदा मुझसे

मैं अभी तक समझ नहीं पाया
ज़िंदगी चाहती है क्या मुझसे

जाने कितने जनम से है 'अनमोल'
दर्दो-ग़म का ये सिलसिला मुझसे
                               

शब्दार्थ
<references/>