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जब निराशा का अँधेरा घोर काला मिल गया / प्रेम भारद्वाज
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जब निराशा का अंधेरा घोर काला मिल गया
शायरी की लौ जगी तो फिर उजाला मिल गया
आतताती कातिलों फिरकों गुटों के पक्ष में
मज़हबों की ही किताबों से हवाला मिल गया
बोलता था गाँव में इंसानियत की बोलियाँ
बात पंचों तक गई घर से निकाला मिल गया
पाँव धरती पर कहाँ जब वह पधारा गाँव में
गोपियों को जैसे रास वाला मिल गया
खुल जा सिमसिम जैसी कोई पास में चाबी नहीं
और किस्मत में जड़ा यह बन्द ताला मिल गया
प्रेम उत्पीड़न विरह कुछ दम दलासा हौसला
रोज़ ग़ज़लों के लिए ताज़ा मसाला मिल गया