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जब निराशा मौत नहीं लगती / समीर बरन नन्दी
Kavita Kosh से
कुछ दिन रात होते है - उदासी
बार- बार हाथ आती है - पूरी तरह ।
कुछ रातें होती है, देखती है आँखें -
कोर से धार गुपचुप ।
डर होता है क़दम उठाने से पहले की कही
तेरा अन्जाम वो न हो, मानकर ।
बैठ जाते है अपने ही भीतर पत्थर की तरह
फिर दिन के भीतर नशे का धुआँ भरता रहता हूँ ।
ऐसा उन चोरो से हमने पाया है
जो जाति ओर पार्टी का नाम लेकर
छा जाते हैं सामंत के दरबार में नचनियो की तरह
निराशा हमको निगलती रहती है ।
बिना धुएँ - जली रस्सी की ऐंठन के भीतर
जैसे आग छुपी रहती है ।
कुछ ऐसे भी दिन होते है -
जब निराशा मौत नहीं लगती ।