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जब न ये अख़्तर शुमारी जायेगी / पुष्पेन्द्र ‘पुष्प’

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जब न ये अख़्तर शुमारी जायेगी
किस तरह फिर बेक़रारी जायेगी

धड़कनों को आँसुओं में घोलकर
हिज्र की रंगत निखारी जायेगी

चाँदनी के देश जाकर ख़्वाब में
वस्ल की सूरत सँवारी जायेगी

आँसुओं की बेवफाई के सबब
आज शब तन्हा गुज़ारी जायेगी

ज़िन्दगी की सुरमई चौसर तले
एक बाज़ी और हारी जायेगी

क़र्ज़ मिट्टी का जो बाक़ी रह गया
हश्र के दिन तक उधारी जायेगी