जब फ़िज़ा में गूंजती हो बाग़बां की दास्तां / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
जब फ़िज़ा में गूंजती हो बाग़बां की दास्तां
कौन सुनता है भला फिर आशियां की दास्तां
पत्थरों के इस शहर में दिल कहेंगे हम उसे,
जो नज़र से जान पाए बेज़ुबां की दास्तां !
इस जहां की ज़िन्दगी में लफ़्ज़ हैं जो क़ैद हैं,
छूट कर ही कह सकेंगे इस जहां की दास्तां !
लफ़्ज़ कितने जादुई से कमसुखन तासीर के ,
की कहां की बात उसने थी कहां की दास्तां !
रहबरों की दास्तानें बस वही हैं जानते ,
चलते-चलते जो सुनेंगे कारवां की दास्तां !
हैं करिश्मा इश्क का तो बस वही ख़ामोशियां ,
बिन कहे जो कह गईं हैं दास्तां की दास्तां !