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जब भी उठो लिहाफ़ हटाकर सुबह-सुबह / विनय कुमार
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जब भी उठो लिहाफ़ हटाकर सुबह-सुबह।
छत में नयी दरार, नया डर सुबह-सुबह।
अंधों को रोशनी की ज़रूरत पडी है फ़िऱ
जलने लगा है फ़िऱ किसी का घर सुबह-सुबह।
कैसा है अस्पताल यह, कैसा इलाज है
नश्तर चला था रात को खंजर सुबह-सुबह।
छेके हुए है रास्ते सूरज पठान सा
जाएं कहाँ निगाह बचाकर सुबह-सुबह।
लडना है हमें सर उठा के रोज़ शाम तक
कैसे झुकाएँ हम कहीं पे सर सुबह-सुबह।
ख़बरों से लगी आग बुझाते हैं चाय से
करते हैं मस्लेहत को कारगर सुबह-सुबह।
सब राज़ शब-ए-वस्ल के रख दे न धूप में
रखिए कड़ी निगाह चांद पर सुबह-सुबह।
पीते ज़रा सा कम तो नशा सर में टूटता
टूटा है मेरे पाँव से सागर सुबह-सुबह।
तुम जा छुपे थे रात में, तुझमें छुपी है रात
लो हो गया हिसाब बराबर सुबह-सुबह।