भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब भी मिले / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूखे तटों को भी इंतज़ार था
लहरों का
उन्हीं से सार्थक था
उनका होना

तय नहीं था कभी
फिर भी उनका मिलना

लेकिन
जब भी मिले
थम गया अनर्गल शोर

बदल गया
पानी का रंग
और मिट्टी का गंध

तरल हो कर बहने लगी
बर्फ हो चुकी
आदिम इच्छाएं

और
संगीत की धुनों के साथ
आसमान तक उठने लगे
हवा से भी हल्के कदम...