भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब भी वो मुझ से मिला रोने लगा / ज़फ़र हमीदी
Kavita Kosh से
जब भी वो मुझ से मिला रोने लगा
और जब तन्हा हुआ रोने लगा
दोस्तों ने हँस के जब भी बात की
वो हँसा फिर चुप रहा रोने लगा
जब भी मेरे पाँव में काँटा चुभा
पत्ता पत्ता बाग़ का रोने लगा
आबयारी के लिए आया था कौन
हर शजर मुरझा गया रोने लगा
चाँद निकला जब मोहर्रम का कहीं
चुप से दश्त-ए-कर्बला रोने लगा
उस पे क्या बीती है अपने शहर में
आश्ना ना-आश्ना रोने लगा
मेरे दुश्मन का रवैया था अजब
जब हुआ मुझ से जुदा रोने लगा
बादलों ने आज बरसाया लहू
अम्न का हर फ़ाख़्ता रोने लगा
देख कर मस्जिद में मुझ को मुज़्तरब
मेरे ग़म में बुत-कदा रोने लगा
था ‘जफ़र’ का इक अनोखा माजरा
ग़ौर से जिस ने सुना रोने लगा