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जब भी सूरज को निकलते देखा / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
जब भी सूरज को निकलते देखा
रात को हमने पिघलते देखा
आदमी मोम नहीं तो क्या है?
रोज़ हालात में ढलते देखा
हो गई आग हवा में शामिल
जिसको देखा है झुलसते देखा
ज़िन्दगी उनको फ़क़त रास आई
जिनकी आवाज़ को मरते देखा
हमने हर गाम पे कुछ लोगों को
अपना अहसास कुचलते देखा