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जब भी सूरज को हथेली पे लिया है मैंने / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'

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जब भी सूरज को हथेली पर लिया है मैंने
सारी दुनिया को अँधेरा ही दिया है मैंने

मेरी मंशा थी कि सड़कों को नदी में बदलूँ
प्यास के वक़्त पसीना ही पिया है मैंने

ख़ार आलूदः दरख़्तों से हवा गुज़री थी
उसका हर ज़ख़्म रिफ़ादों से सिया है मैंने

मेरे लफ़्ज़ों में निहाँ है जो म‍आनी समझो
कुछ रिवायत में इज़ाफ़ा ही किया है मैंने

ज़िन्दगी तू तो सितमगर ही ही रही है मुझपर
हर अज़ीयत को ही हँस-हँस के जिया है मैंने