भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब मुंडेरों पे परिंदों की कुमक जारी थी / हम्माद नियाज़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब मुंडेरों पे परिंदों की कुमक जारी थी
लफ़्ज़ थे लफ़्ज़ों में एहसास की सरदारी थी

अब जौ लौटा हूँ तो पहचान नहीं होती है
कहाँ दीवार थी दीवार में अलमारी थी

वो हवेली भी सहेली थी पहेली जैसी
जिस की ईंटों में मिरे ख़्वाब थे ख़ुद्दारी थी

आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
बस यही याद है इक शाम बहुत भारी थी

पूछता फिरता हूँ गलियों में कोई है कोई है
ये वो गलियाँ हैं जहाँ लोग थे सरशारी थी

पेड़ के चंद मकानों में ज़मानों जैसे
जिन की छाँव में मिरी रूह की लू जारी थी

क्या भले दिन थे हमें खेल था हँसना रोना
साँस लेना भी हमें जैसे अदाकारी थी

बस कोई ख़्वाब था और ख़्वाब के पस-मंज़र में
बाग़ था फूल थे ख़ुशबू की नुमूदारी थी

हम ने देखा था उसे उजले दिनों में ‘हम्माद’
जिन दिनों नींद थी और नींद में बेदारी थी