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जब मुहब्बत का किसी शय पे असर हो जाए / दरवेश भारती
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जब महब्बत का किसी शय पे असर हो जाए
एक वीरान मकां बोलता घर हो जाए
मैं हूँ सूरजमुखी तू मेरा है दिलबर सूरज
तू जिधर जाए मेरा रुख़ भी उधर हो जाए
रंजो-ग़म, ऐशो-खुशी जिसके लिए एक ही हों
उम्र उस शख़्स की शाहों-सी बसर हो जाए
जो भी दुख, दर्द, मुसीबत का पिये विष हँसकर
क्यों न सुक़रात की सूरत वो अमर हो जाए
लौट आओ जो कभी राम की सूरत तुम, तो
मन का सुनसान अवध दीप-नगर हो जाए
खा के पत्थर भी जो मुस्कान बिखेरे हर सू
बाग़े-आलम का वो फलदार शजर हो जाए
हमने जाना है यही आ के जहां में 'दरवेश'
होना चाहे जो न हरगिज़ वो बशर हो जाए