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जब मेरे निखरे कंचन-तन में प्रिय! भूकम्प समा जाये / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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जब मेरे निखरे कंचन-तन में प्रिय! भूकम्प समा जाये।
प्रतिशिरा-रूधिर-गति-तुहिन-सरित सी प्रिय!जब धीमी पड़ जाये।
जिस दिन हृत्कम्प-प्रभावित उलटी ये आँखे हों पाषाणी।
रसना असक्त हो जाय ध्वनित करनें में प्रिय गदगद वाणी।
जब सूक्ष्म-प्राण-यवनिका-ओट से गॅंज उठे भैरव-गाना।
आ माथे पर सौभाग्य-चिह्न का कुंकुम चटक लगा जाना।
जीवन-सर्वस्व! पुकार रही विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥126॥