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जब मैं कोई उपहार ले कर / अज्ञेय

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जब मैं कोई उपहार ले कर तेरे आगे उपस्थित होती हूँ, तब मेरे प्राण इस भावना से भर-भर आते हैं कि वह तेरे योग्य नहीं है। तब, तुझे कैसे वह भेंट चढ़ाऊँ?
किन्तु यह मैं भूल जाती हूँ कि अब कभी कोई वस्तु मेरी आँखों में अन्यून और निर्दोष नहीं होगी; क्योंकि वे आँखें अब मेरी नहीं हैं, उन में से तो तेरी निरपेक्ष सर्वदर्शी दृष्टि झाँक रही है...

1934