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जब मैं थका हुआ घर आऊँ / शकुन्त माथुर
Kavita Kosh से
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो।
चाहे दिन भर बहें पसीने
कितने भी हों कपड़े सीने
बच्चा भी रोता हो गीला
आलू भी हो आधा छीला
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो
सब तूफ़ान रुके हों घर के
मुझको देखो आँखें भर के
ना जूड़े में फूल सजाए
ना तितली से वसन, न नखरे
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो
अधलेटी हो तुम सोफ़े पर
फॉरेन मैगज़ीन पढ़ती हो
शीशे सा घर साफ़ पड़ा हो
आहट पर चौंकी पड़ती हो
तुम कविता मत लिखो सलोनी,
मैं काफी हूँ, तुम प्रियतर हो
जब मैं थका हुआ घर आऊँ,
तुम सुन्दर हो घर सुन्दर हो।