जब मैं नहीं होऊँगी / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
जब मैं नहीं होऊँगी
मेरी किताबों की ताक के पास जाना
वहाँ मेरी अन्यमनस्कता और अन्तर्दाह
करीने से सजे हुए हैं
समय मिले तो उन्हें ज़रा सहला देना ।
किसी किताब के पन्ने में होगा
मेरी तमाम रातों का उनीन्दापन
किसी किताब के पन्ने पर
सुखी जैसे दिखते क्षण से सराबोर
मेरी सघन उदासी किसी किताब में होगी
मेरी थक-हारकर बैठी होने की लाचारी
किसी किताब की ज़िल्द पर गिरकर सूख चुकी होगी
सबके अनजाने छुपा-छुपाकर रोई आँसुओं की बून्द
सबसे ज्यादा निस्संग समय की
दबी हुई सिसकियाँ मिलेंगी
कविता की किताबों के पन्नों पर
समझ जाओगे, ज़िन्दगी भर कितनी एकाकी रही मैं
किस तरह शब्दों को सहारा बनाया था !
जब मैं नहीं होऊँगी
मेरी मेज़ के पास जाना
मेरे न होने की वजह से मेज़ पर जमी धूल पोंछ देना
न जाने कितने उनीन्दे प्रहर,
कितनी अस्थिरताओं
कितने उल्लास,
कितनी निस्संगताओं की मूक साक्षी है
वह मेज़
थक जाने पर या हुलस उठने पर
हर बार लिया जाता था मुझे एक-सी आन्तरिकता से ।
इधर-उधर बिखरी पड़ी
कुछ अन्यमनस्कताओं को छूना तुम,
तुम्हारे स्पर्श के इन्तज़ार में ही तो
इतने दिनों, महीनों और सालों से
पड़ी हैं वे वहाँ इन्तज़ार की मुद्रा में ।
जब मैं नहीं होऊँगी
मेरी इस विचित्र गुफ़ा में
एक बार जाना, दुखी मत होना,
तुम्हें दुखी नहीं देख सकती थी
तभी तो मुस्कराते हुए बिता दी पूरी उम्र
जिसे दुनिया ने कहा
बेहद भरा-पूरा जीवन, सुघर, सुन्दर ।
मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र